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 एस्ट्रो धर्म :



होली का पर्व देशभर के हर हिस्से में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। होली की धूम और प्रसिद्धि की बात की जाए तो ब्रज की होली विश्वभर में बहुत प्रसिद्ध है। ब्रज की होली की परंपराएं बहुत ही अनोखी व जीवंत मानी जाती है। बरसाना की लट्ठमार होली का त्योहार देखने लाखों लोग यहां आते हैं। वहीं बरसाना में कटारा हवेली स्थित एक मंदिर है ब्रज दूलह मंदिर जहां ब्रज की राधा स्वरुप हरियारी कृष्ण को लाठियां मारती हैं। यहां की परंपरा अनुसार आज भी श्री कृष्ण की लाठियों से पिटाई होती है।

यहां सिर्फ महिलाएं करती है पूजा
बरसाना के कटारा हवेली स्थित ब्रज दूलह मंदिर बहुत प्रसिद्ध मंदिर है। मंदिर की खासियत है की यहां सिर्फ महिलाएं ही पूजा करती हैं। मान्यताओं के अनुसार यह मंदिर रूपराम कटारा ने बनवाया था। इसलिये यहां आज भी उनके परिवार की महिलाएं ब्रज दूलह के रूप में विराजमान भगवान श्री कृष्ण की पूजा करती हैं और यही नहीं यह मंदिर ब्रज का इकलौता ऐसा मंदिर है जहां श्री विग्रह कृष्ण को लाठियां मारी जाती है।
कटारा परिवार आज भी करता है नंदगांव के हुरियारे का स्वागत
लठामार होली वाले दिन नंदगांव के हुरियारे कटारा हवेली पहुंच कर श्रीकृष्ण से होली खेलने को कहते हैं। कटारा परिवार द्वारा हुरियारों का स्वागत किया जाता है। उनको भाग और ठंडाई पिलाई जाती है। ब्रज दूलह मंदिर की सेवायत की राधा कटारा ने बताया कि भगवान श्री कृष्ण कटारा हवेली में ब्रज दूलह के रूप में विराजमान हैं। यहां सभी व्यवस्थाएं महिलाएं करती हैं। होली के दिन लठामार होली की शुरुआत ब्रज दूलह के साथ होली खेलते हुए होती है।
इसलिये यहां का नाम ब्रज दूलह पड़ गया
पौराणिक मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण गोपियों को कई तरह से परेशान किया करते थे। कभी उनकी मटकी फोड़ देते तो कभी माखन चुरा कर खा लेते थे। एक बार बरसाना की गोपियों ने कृष्ण को सबक सिखाने की योजना बनाई। उन्होंने कृष्ण को उनके सखाओं के साथ बरसाना होली खेलने का न्यौता दिया। श्रीकृष्ण और ग्वाल जब होली खेलने बरसाना पहुंचे तो उन्होंने देखा कि बरसाना की गोपियां हाथ में लाठियां लेकर खड़ी हैं। लाठियां देख ग्वाल-बाल भाग गए। जब श्रीकृष्ण अकेले पड़ गए तो गायों के खिरक में जा छिपे। जब गोपियों ने कान्हा को ढूंढा और यह कह कर बाहर निकाला कि ‘यहां दूल्हा बन कर बैठा है, चल निकल बाहर होली खेलते हैं’। इसके बाद गोपियों ने श्रीकृष्ण के साथ जमकर होली खेली। तभी से भगवान का एक नाम ब्रज दूलह भी पड़ गया।
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ऐस्ट्रो  धर्म :

शनिवार के दिन शनिदेव और हनुमानजी की पूजा की जाती है। माना जाता है कि इस दिन भगवान हनुमान की पूजा करने से शनिदेव प्रसन्न रहते हैं और हनुमान भक्तों पर उनकी कृपा बनी रहती है।

अक्सर हम देखते हैं हनुमानजी और शनिदेव की प्रतिमाएं एक ही मंदिर में होती है। ऐसे में हमारे मन में सवाल उठते हैं कि शनिदेव और हनुमान जी की प्रतिमाएं एक ही मंदिर में क्यों होती है? हनुमानजी और शनिदेव के बीच के रिश्ते क्या है? आज हम हनुमानजी और शनिदेव के रिश्ते के बारे में बताएंगे...

पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार हनुमानजी किसी कार्य में व्यस्त थे। उसी दौरान वहां से शनिदेव गुजर रहे थे। रास्ते में उन्हें हनुमानजी दिखाई पड़े। इसके बाद शनिदेव को शरारत सूझी और वे उस कार्य में विध्न डालने हनुमानजी के पास पहुंच गये।

इसके बाद हनुमानजी ने तब शनिदेव को अपनी पूंछ से जकड़ लिया और फिर से अपने कार्य लग गए। इस दौरान शनिदेव को बहुत सारी चोटें आईं। कार्य खत्म होने के बाद हनुमानजी को शनिदेव का ख्याल आया और तब उन्होंने शनिदेव को आजाद किया।

चढ़ाते हैं सरसों का तेल
इसके बाद शनिदेव ने हनुमानजी से सरसों का तेल मांगा, ताकि वो अपने जख्मों पर लगा सकें और जल्द ही चोटों से उबर सकें। इसके बाद हनुमानजी ने उन्हें सरसों का तेल दिया और इस तरह शनिदेव के जख्म ठीक हुए। तब शनिदेव ने कहा कि जो भी भक्त शनिवार के दिन मुझ पर सरसों का तेल चढ़ाएगा, उसे मेरी विशेष कृपा प्राप्त होगी।
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ऐस्ट्रो धर्म 

विश्व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल खाटू श्याम जी  में बाबा श्याम के फाल्गुनी लक्खी  मेले में देशभर से श्रद्धालु बाबा श्याम  के दरबार में हाजिरी लगाने के लिए उमड़ रहे हैं
- हारे के सहारे की जय, तीन बाण धारी की जय, लखदातार की जय जैसे अनेक जयकारों से बाबा श्याम का दरबार गुंजायमान हो रहा है
- देश का इकलौता मंदिर, जहां केवल शीश की होती है पूजा
देश में इन दिनों एक गांव धार्मिक स्थल का सबसे बड़ा केन्द्र बना हुआ है। विश्व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल खाटूश्यामजी  में बाबा श्याम के फाल्गुनी लक्खी मेले में देशभर से श्रद्धालु बाबा श्याम  के दरबार में हाजिरी लगाने के लिए उमड़ रहे हैं। कोई पेट पलायन तो कोई हाथों में श्याम ध्वजा लेकर दरबार में पहुंच रहा है। हारे के सहारे की जय, तीन बाण धारी की जय, लखदातार की जय जैसे अनेक जयकारों से बाबा श्याम  का दरबार गुंजायमान हो रहा है। पूरी खाटू नगरी श्याम रंग में रंगी हुई है। सतरंगी बाबा श्याम के मेले में अब तक 40 लाख से ज्यादा भक्तों ने शीश नवाया है। अलग-अलग नामों से प्रसिद्घ बाबा श्याम का इतिहास भी बड़ा निराला है।
भक्तों से अटा खाटूश्यामजी, 30 किलोमीटर तक जाम
आस्था ऐसी कि पूरा खाटूधाम भक्तों से अटा हुआ है। हर ओर भक्त ही भक्त। लाखों की संख्या में श्रद्धालु बाबा के दर्शन के लिए पहुंच रहे हैं। हालांकि, मेले को लेकर प्रशासन ने पुख्ता इंतजाम किए है, लेकिन आस्था के आगे बोने रह गए। स्थिति यह है कि सड़क पर 30 किलोमीटर तक लम्बा जाम लगा रहा।
श्री कृष्ण ने दिया था वरदान 
श्री कृष्ण ने प्रसन्न होकर वीर बर्बरीक के शीश को वरदान दिया कि कलयुग में तुम मेरे श्याम नाम से पूजित होगा और तुम्हारे स्मरण मात्र से ही भक्तों का कल्याण होगा और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कि प्राप्ति होगी। स्वप्न दर्शनोंपरांत बाबा श्याम, खाटू धाम में स्थित श्याम कुण्ड से प्रकट होकर अपने कृष्ण विराट सालिग्राम श्री श्याम रूप में सम्वत 1777 में निर्मित वर्तमान खाटू श्याम जी मंदिर में भक्तों कि मनोकामनाएं पूर्ण कर रहे हैं। एक बार खाटू नगर के राजा को सपने में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिए कहा। इस दौरान उन्होंने खाटू धाम में मन्दिर का निर्माण कर कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया। वहीं मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कंवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर 1720 ई. में मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, तब से आज तक मंदिर की चमक यथावत है। मंदिर की मान्यता बाबा के अनेक मंदिरो में सर्वाधिक रही है।
देश का इकलौता मंदिर, जहां केवल शीश की होती है पूजा
खाटूश्यामजी में स्थित बाबा श्याम का देश में इकलौता ऐसा मंदिर है, जहां भगवान के केवल शीश की पूजा की जाती है। लोगों का विश्वास है कि बाबा श्याम सभी की मुरादें पूर्ण करते है और रंक को भी राजा बना सकते है। इस मंदिर से भक्तों की गहरी आस्था जुड़ी हुई है। बाबा श्याम का इतिहास महाभारत काल की एक पौरानिक कथा से जुड़ा हुआ है। महाभारत काल के दौरान पांडवों के वनवासकाल में भीम का विवाह हिडिम्बा के साथ हुआ था। उनके घटोत्कच नाम का एक पुत्र हुआ था।
पांडवों के राज्याभिषेक होने पर घटोत्कच का कामकटंककटा के साथ विवाह और उससे बर्बरीक का जन्म हुआ और बर्बरीक को भगवती जगदम्बा से अजेय होने का वरदान प्राप्त था। जब महाभारत युद्ध की रणभेरी बजी, तब वीर बर्बरीक ने युद्ध देखने की इच्छा से कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े। इस दौरान मार्ग में बर्बरीक की मुलाकात भगवान श्री कृष्ण से हुई। ब्राह्मण भेष धारण श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के बारे में जानने के लिए उन्हें रोका और यह जानकर उनकी हंसी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में शामिल होने आए हैं।
कृष्ण की ये बात सुनकर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि उनका केवल एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिए काफी है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तूणीर में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाएगा। यह जानकर भगवान कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस वृक्ष के सभी पत्तों को वेधकर दिखलाओ।
परीक्षा स्वरूप बर्बरीक ने पेड़ के प्रत्येक पत्ते को एक ही बाण से बींध दिया तथा श्री कृष्ण के पैर के नीचे वाले पत्ते को भी बींधकर वह बाण वापस तरकस में चला गया। इस दौरान उन्होंने (कृष्ण) पूछा कि वे (बर्बरीक) किस तरफ से युद्ध में शामिल होंगे। तो बर्बरीक ने कहा युद्ध में जो पक्ष निर्बल और हार रहा होगा वे उसी की तरफ से युद्ध में शामिल होंगे। श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की निश्चित है और इस कारण अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम गलत पक्ष में चला जाएगा।
इसीलिए ब्राह्मणरूपी कृष्ण ने वीर बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की और उनसे शीश का दान मांगा। वीर बर्बरीक क्षण भर के लिए अचम्भित हुए, परन्तु अपने वचन से अडिग नहीं हो सकते थे। वीर बर्बरीक बोले एक साधारण ब्राह्मण इस तरह का दान नहीं मांग सकता है, अत: ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की। ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण अपने वास्तविक रूप में आ गये। श्री कृष्ण ने बर्बरीक को शीश दान मांगने का कारण समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन के लिए तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति देनी होती है; इसलिए ऐसा करने के लिए वे विवश थे।
इस दौरान बर्बरीक ने महाभारत युद्ध देखने कि इच्छा प्रकट की। श्री कृष्ण ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। श्री कृष्ण इस बलिदान से प्रसन्न होकर बर्बरीक को युद्ध में सर्वश्रेष्ठ वीर की उपाधि से अलंकृत किया। श्री कृष्ण ने उस शीश को युद्ध अवलोकन के लिए, एक ऊंचे स्थान पर स्थापित कर दिया। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया था इस प्रकार वे शीश के दानी कहलाये। खाटूश्यामजी देश का इकलौता ऐसा मंदिर है, जहां भगवान के केवल शीश की पूजा की जाती है।

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ऐस्ट्रो धर्म




ज्योतिष शास्त्र की मदद से हम शकुन-अपशकुन के बारे में पता लगा सकते हैं। यही नहीं, इसकी मदद से भविष्य में होने वाली अच्छी-बुरी बातों के बारे में जानकारी मिल सकती है। आज हम आपको कुछ ऐसी बातें बताएंगे, जिसे जानकर आप ये पता लगा सकते हैं कि धन की देवी मां लक्ष्मी आप पर प्रसन्न होने वाली हैं।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारे जीवन में जब भी अच्छा या बुरा होता है, उससे पहले ही हमे संकेत मिलने लगते हैं। कुछ लोग उन संकेतों को समझकर आगे बढ़ते हैं और उसी के अनुसार कार्य करते हैं। आज हम आपको बताएंगे कि मां लक्ष्मी की कृपा से जुड़े कुछ संकेत। अगर आपको भी इस तरह के संकेत मिल रहे हैं तो समझ लीजिए कि मां लक्ष्मी की कृपा से धन संबंधी समस्याएं दूर होने वाली है।

मां लक्ष्मी की कृपा से जुड़ी शुभ संकेत...

अगर आपको सपने में बार-बार पानी या हरियाली दिखाई दे तो समझ लें कि आपकी धन संबंधी परेशानियां दूर होने वाली है।
अगर सपने में मां लक्ष्मी का वाहन उल्लू दिखाई दे तो समझ लीजिए की बहुत जल्द मां लक्ष्मी की कृपा से आपकी धन संबंघी परेशानियां दूर होने वाली है।
सपने से सफेद या सुनहरा सांप दिखाई दे तो इसे मां लक्ष्मी का शुभ संकेत माना जाता है।
अगर आते-जाते सफेद सांप दिखाई दे तो यह भी शुभ संकेत है।
अगर सुबह उठते ही शंख और मंदिर की घंटियों की आवाज सुनाई दे तो समझ लें कि अच्छे दिन आने वाले हैं।
अगर सुबह-सुबह गन्ना दिखाई दे तो समझ लीजिए कि आपको धन संबंधी कार्यों में सफलता मिलेगी।
घर से निकलते ही अगर आपको सफाईकर्मी दिखाई दे तो समझ लीजिए कि आप जिस कार्य के लिए बाहर जा रहे हैं उसमें सफलता मिलेगी।
घर से निकलते ही अगर गाय दिखाई दे तो उसे शुभ संकेत माना जाता है। यदि गाय सफेद हो तो बहुत ही शुभ होता है।
सुबह जगते ही अगर आपको दूध-दही से भरे बर्तन दिखाई दे तो समझ लीजिए आपका दिन शुभ है।
यात्रा पर जाते समय सांप, बंदर, कुत्ता, या कोई पंक्षी दिखाई दे तो आपकी यात्रा मंगलमयी होगी।
सुबह-सुबह नारियल, मोर, हंस, फूल, पुष्पमाला आदि दिखाई दे तो यह शुभ संकेत होता है।

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ACHARYA RAM GOPAL SHUKLA | ASTRO DHARM | The Laxminarayan Temple, also known as the Birla Mandir is a Hindu temple up to large extent dedicated to Laxminarayan in Delhi, India. Laxminarayan usually refers to Vishnu, Preserver in the Trimurti, also known as Narayan, when he is with his consort Lakshmi. The temple, inaugurated by Mahatma Gandhi, was built by Jugal Kishore Birla[1] from 1933 and 1939. The side temples are dedicated to Shiva, Krishna and Buddha.[2] It was the first large Hindu temple built in Delhi. The temple is spread over 7.5 acres, adorned with many shrines, fountains, and a large garden with Hindu and Nationalistic sculptures, and also houses Geeta Bhawan for discourses. The temple is one of the major attractions of Delhi and attracts thousands of devotees on the festivals of Janmashtami and Diwali. The construction of temple dedicated to Laxmi Narayana started in 1933, built by industrialist and philanthropist, Baldeo Das Birla and his son Jugal Kishore Birla of Birla family, thus, the temple is also known as Birla Temple. The foundation stone of the temple was laid by Jat Maharaj Udaybhanu Singh. The temple was built under guidance of Pandit Vishwanath Shastri.[3] The concluding ceremony and Yagna was performed by Swami Keshavanandji.[4] The famous temple is accredited to have been inaugurated by Mahatma Gandhi in 1939. At that time, Mahatma Gandhi kept a condition that the temple would not be restricted to the upper-caste Hindus and people from every caste would be allowed inside.[2][5] This is the first of a series of temples built by the Birlas in many cities of India, which are also often called Birla Temple.Its architect was Sris Chandra Chatterjee, a leading proponent of the "Modern Indian Architecture Movement."[6] The architecture was influenced heavily by the principles of the Swadeshi movement of the early twentieth century and the canonical texts used. The movement did not reject the incorporation of new construction ideas and technologies. Chatterjee extensively used modern materials in his buildings. The three-storied temple is built in the northern or Nagara style of temple architecture. The entire temple is adorned with carvings depicting the scenes from golden yuga of the present universe cycle. More than hundred skilled artisans from Benares, headed by Acharya Vishvanath Shastri, carved the icons of the temple. The highest shikhara of the temple above the sanctum sanctorum is about 160 feet high. The temple faces the east and is situated on a high plinth. The shrine is adorned with fresco paintings depicting his life and work. The icons of the temple are in marble brought from Jaipur. Kota stone from Makarana, Agra, Kota, and Jaisalmer was used in the construction of the temple premises. The Geeta Bhawan to the north of the temple is dedicated to Lord Krishna. Artificial landscape and cascading waterfalls add to the beauty of the temple. The main temple houses statues of Lord Narayan and Goddess Lakshmi. There are other small shrines dedicated to Lord Shiva, Lord Ganesha and Hanuman. There is also a shrine dedicated to Lord Buddha. The left side temple shikhar (dome) houses Devi Durga, the goddess of Shakti, the power. The temple is spread over an area of 7.5 acres (30,000 m2) approximately he temple is located on the Mandir Marg, situated west of the Connaught Place in New Delhi. The temple is easily accessible from the city by local buses, taxis and auto-rickshaws. Nearest Delhi Metro station is R. K. Ashram Marg metro station, located about 2 km away. Also on the same road lies the New Delhi Kalibari.


 कैलाश मानसरोवर यात्रा करना  हर हिन्दू अपना सौभाग्य हैं  . कैलाश मानसरोवर  को शिव-पार्वती का घर माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मानसरोवर के पास स्थित कैलाश पर्वत पर भगवान भोले का धाम है। यही वह पावन जगह है, जहाँ शिव-शंभू विराजते हैं। पुराणों के अनुसार यहाँ शिवजी का स्थायी निवास होने के कारण इस स्थान को 12 ज्येतिर्लिंगों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। कैलाश बर्फ़ से आच्छादित 22,028 फुट ऊँचे शिखर और उससे लगे मानसरोवर को 'कैलाश मानसरोवर तीर्थ' कहते है और इस प्रदेश को मानस खंड कहते हैं। हर साल कैलाश-मानसरोवर की यात्रा करने, शिव-शंभू की आराधना करने, हज़ारों साधु-संत, श्रद्धालु, दार्शनिक यहाँ एकत्रित होते हैं, जिससे इस स्थान की पवित्रता और महत्ता काफ़ी बढ़ जाती है। कैलाश-मानसरोवर उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन हमारी सृष्टि है। इस अलौकिक जगह पर प्रकाश तरंगों और ध्वनि तरंगों का समागम होता है, जो ‘ॐ’ की प्रतिध्वनि करता है। इस पावन स्थल को 'भारतीय दर्शन के हृदय' की उपमा दी जाती है, जिसमें भारतीय सभ्यता की झलक प्रतिबिंबित होती है।


मानसरोवर झील

मानसरोवर झील तिब्बत में स्थित एक झील है। यह झील लगभग 320 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। इसके उत्तर में कैलाश पर्वत तथा पश्चिम में रक्षातल झील है। पुराणों के अनुसार विश्व में सर्वाधिक समुद्रतल से 17 हज़ार फुट की उंचाई पर स्थित 120 किलोमीटर की परिधि तथा 300 फुट गहरे मीठे पानी की मानसरोवर झील की उत्पत्ति भगीरथ की तपस्या से भगवान शिव के प्रसन्न होने पर हुई थी। ऐसी अद्भुत प्राकृतिक झील इतनी ऊंचाई पर किसी भी देश में नहीं है। पुराणों के अनुसार शंकर भगवान द्वारा प्रकट किये गये जल के वेग से जो झील बनी, कालांतर में उसी का नाम 'मानसरोवर' हुआ।
राक्षस ताल

राक्षस ताल लगभग 225 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र, 84 किलोमीटर परिधि तथा 150 फुट गहरे में फैला है। प्रचलित है कि राक्षसों के राजा रावण ने यहां पर शिव की आराधना की थी। इसलिए इसे राक्षस ताल या रावणहृद भी कहते हैं। एक छोटी नदी गंगा-चू दोनों झीलों को जोडती है।

कैलास पर रावण की शिव स्तुति
शिव महापुराण के अनुसार एक बार लंकापति रावण ने कई वर्षों तक लगातार शिव स्तुति की, लेकिन उसकी स्तुति का कोई प्रभाव भगवान शंकर की समाधि पर नहीं पड़ा, तब उसने कैलास पर्वत के नीचे घुसकर उसे हिलाने की कोशिश की ताकि भगवान शंकर उठकर उसकी इच्छानुसार वरदान प्रदान करें। उसकी इस इच्छा को जानकर शिव ने उसे पहले ही कैलास के नीचे दबा दिया, जिससे वह बाहर न निकल सके। पर्वत के नीचे दब जाने के बाद रावण शिव का प्यारा तांडव नृत्य करते हुए एक स्तोत्र रचकर गाने लगा, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उसे इच्छानुसार वरदान दिया।

कैलाश मानसरोवर यात्रा

कैलाश पर्वत - परिचय :- कैलाश पर्वत, जिसकी उँचाई 6740 मीटर है, हिमलयी अवरोध के उत्तर में स्थित है, जो पूर्णरूप से तिब्बत में है| यह अदभुत सोन्दर्य वाला पर्वत है जिसमें 4 फलक्‌ / आमुख हैं|यह चार महान धर्मों : तिब्बती बोद्धवाद, हिंदुवाद, जैन धर्म एवम बौद्ध पूर्ब् जीववादी धर्म : बॉन्पो के लिए अध्यात्मिक केंद्र है| तिब्बतीयों के लिए यह खांग रिम्पोचे (बर्फ का बहमुल्य रत्न) के रूप में जाना जाता है और वे इसे विश्‍व की नाभि के रूप में देखते हें| यह कहा जाता है कि इस पर्वत से एक धारा नज़दीक़ी झील में गिरती है और यहाँ से नदियाँ चार मुख्य दिशाओं में प्रभहित होती है|उत्त्तर की और सिंह मुख नदी , पूर्ब् की और अश्व मुख नदी, दक्षिण की और मयूर मुख नदी तथा पस्चिम की ओर गज़ मुख नदी |यह काफ़ी आश्‍चर्या की बात है कि चार प्रमुख नदियाँ - सिंध, यर्लांग सोँपो(ब्रह्मपुत्र), करनाली एवम सतलुज का उद्‍गम वास्तव में कैलाश पर्वत के पास से होता है| तिब्बत वासी यह विश्‍वास करते हें की यह एक ख़ूँख़ार दिखने वाले तांत्रिक देवता डेमचोक का निवास है जो यहाँ अपने जीवन साथी (पत्नी) डोर्जो फाम्मो के साथ रहता है | तिब्बत वासियों के लिए भी यह एक बहुत विशेष स्थान है जहाँ पर उनके कवि संत मिलारेपा ने गुफा में ध्यान लगाते हुए कई वर्ष बिताए थे | हिंदुओं के लिए कैलाश पर्वत , मेरु पर्वत की सांसारिक अभिव्यक्ति है की भ्राह्मांड का उनका अध्यात्मिक केन्द्र है , जिसका चित्रण 84,000 मील उँचें विलक्षण "विश्व स्तंभ" के रूप में किया गया है, जिसके चारों और अन्य सभी परिक्रमा करते हेँ , जिसकी जड़ें पाताल में हेँ एवं जिसकी चोटी स्वर्ग का चुंबन कर रही है | शिखर पर उनके परम श्रद्ढेया श्र्द्धेय भगवान शिव एवम उनकी धर्मपत्नी पार्वती निवास करती हैं|जैन धर्म , जो कि एक भारतीय धार्मिक समूह है, के अनुयायियों के लिए कैलाश वह स्थान है जहाँ पर उनके प्रथम संस्थापक ने जैन धर्म , जो कि एक भारतीय धार्मिक समूह है, के अनुयायियों के लिए कैलाश वह स्थान है जहाँ पर उनके प्रथम संस्थापक ने आत्मज्ञान प्राप्त किया था|

बहुत प्राचीन बौद्ध के पूर्वजों के लिए यह वह स्थान है जहाँ पर इसके संस्थापक शानरब, ऐसा कहा जाता है, स्वर्ग से अवतरित हुए थे| पहले यह प्राचीन बौद्ध साम्राज्य झांग चुंग का आध्यात्मिक केन्द्र था जिसमें एक बार संपूर्ण पाश्चिमी तिब्बत शामिल था| बौद्ध धर्म के अनुयायी अन्य धर्म के विपरीत दा क्षणवावत विरुद्ध दिशा में पर्वत की परिक्रमा करते हेँ| विगत सर्दीयो में,तीर्थयात्रिओं ने आत्मज्ञान प्राप्त करने या अपने पाप धोने के लिए,विशाल दूरीयों,विशेषकर उग्र मौसा और डाकुओं के हमलों का हिम्मत से सामना करते हुए असीम दूरीयों की लगातार यात्रा की |

वस्त्र और उपस्कर :-

कैलाश-मानसरोवर 16,000 से 19,500 फीट की उँचाई पर स्तिथ है| भारतीय तीर्थयात्रा का मौसम मानसून(जून- सेप्टेंबर) का है| तथापि, उच्चतर पहाड़ों पर कम बरसात होती है| उँचाई पर मौसम परिवर्तनशील और जोखिम-भरा होता है| दिन के दौरान सूरज गरम होता है| और त्त्वचा को नुकसान हो सकता है| उनी कपड़े और विंड चीटर्स ठंडी हवाओं का सामना करने के लिए आवश्यक है| वस्त्र हल्के , विंड-प्रूफ,वॉटर-रिपेलेंट और गरम होने चाईए| प्रत्येक यात्री को निम्नलिखित समान साथ ले जाने का परामर्श किया जाता है| विंड -प्रूफ जॅकेट -1. स्वेटर-2 पूरी बाजू, मंकी कैप-1,उनी और चमडे के दस्ताने -1 जोड़ा प्रत्येक ,उनी /कॉटन लॉंग जोन्स-2 जोड़े, उनी जुराब-4 जोड़े,कॉटन की जुराबें -4 जोड़े, जीन्स/पेंट-3,शॉट्स-2,शर्ट/टी शर्ट-6,चेन सहित अच्छी किस्म के धूप के चश्मे-1,हंटिंग /मार्चीग जुटे-2 जोड़े, धूप से बचने के लिए स्ट्रॉ हॅट-1,पानी की बोतल-1, दो अतिरिक्त सेट सेल और बल्ब के साथ टॉर्च लाइट-1,बड़ा रेन कोट -1,कॅमरा /धनराशि/ दवाइयों / कागजात के लिए बेल्ट पाउच-1,सामान के वॉटर प्रूफिंग के लिए बड़ी प्लास्टिक शीट-1,प्लेट /मग/ चम्मच-1 सेट, टायलेट पेपर,सन बर्न से बचाव के लिए सन क्रीम लोशन-1,मोमबत्ती, माचिस की डिब्बी/लाइटर बहुउद्देश्या चाकू-1, रबर के स्लीपर्स-1, जिप के साथ कॅनवस बॅग (सूटकेस की अनुमति नहीं है), वॉकिंग स्टिक, एक बेडशीट और तकिया का कवर व्यक्तिगत स्वचछता के लिए (मॅट्रेस,क्विल्ट /स्लीपिंग बॅग सभी कॅंप में उपलब्ध कारावाए करवाए जाते हेँ ), कॅमरा| प्रत्येक यात्री निजी प्रयोग हेतु खाद्य सामग्री ले जा सकता है: कुमाओं मंडल विकास निगम नाश्ता ; दोपहर तथा रात्रि का भोजन, और दिन में दो बार चाय की आपूर्ति करता है| (चायनीज साइड के लिए सूची बाद में प्रस्तुत की जाती है) |तथापि, प्रत्येक तीर्थयात्री कुछ सामग्री ले जा सकता है|निम्नलिखित की अनुशंसा की गयी है: बिस्कुट मीठा /नमकीन, सूखे फल, लेमन ड्रॉप ,चॉकलेट , टॉफी, सूप पाउडर, चीज़ क्यूब , च्छेउइंगम चूयिंगगम, तत्काल पेय (इंस्टेंट ड्रिंक), एलेकट्राल / ग्लूकोस | परिक्रमा के दौरान प्रयोग हेतु सामान्य सामग्री( अथार्त चाइनईज़ साइड से यात्रा करने पर): चाइनईज़ साइड से भोजन केवल तकलाकोट में ठहरने के दौरान उपलब्‍ध करवाया जाता है|अत: 9 दिनों के लिए चाइनीस साइड में प्रयोग करने हेतु खाद्य सामग्री अपने साथ ले जायें| वे अपनी सुविधा के लिए दिल्ली से ख़रीदकर साथ ले जाएँ|तीर्थ यात्रिओं का प्रत्येक समूह संयुक्त रूप से खरीदारी कर सकता है|सामग्री या तो पहले से पकी अंशत:, पहले से पकी हुई या पकाने में आसानी होनी चाईए | जहाँ तक संभव हो भोजन तरल रूप में लिया जाए| उच्च तुंगता पर खाना पकाने में अधिक समय लगता है| अनुशंसा की गई सामग्री हैं: आटा, चावल,दाल,सोयाबीन बड़ी,न्यूडल्स , सूप पॅकेट , पहले से पकी हुई सूजी,उपमा पॅकेट, पहले से पकी हुई सब्जी एवम दाल के डिब्बे,सलाद,मसाले, दूध पाउडर / कनडेन्स मिल्क, चीनी, कॉर्न फ्लेक्स /ज़ई /दलिया,क़ॉफ़ी /बोर्नविटा,सूजी या हलवा बनाने के लिए पहले से भूना हुआ रवा,घी,हवन व पूजा हेतु पूजा सामग्री |

औषधियाँ

परिक्रमा के दौरान प्रयोग हेतु सामान्य सामग्री(अर्थात चाइनईज़ साइड से यात्रा करने पर): चाइनईज़ साइड से भोजन केवल तकलाकोट में ठहरने के दौरान उपलब्‍ध करवाया जाता है|अत: 9 दिनों के लिए चाइनीस साइड में प्रयोग करने हेतु खाद्य सामग्री अपने साथ ले जायें| वे अपनी सुविधा के लिए दिल्ली से ख़रीदकर साथ ले जाएँ|तीर्थ यात्रिओं का प्रत्येक समूह संयुक्त रूप से ख़रीदकर साथ ले जाएँ|तीर्थयात्रिओं का प्रत्येक समूह संयुक्त रूप से खरीदारी कर सकता है| सामग्री या तो पहले से पकी हुई/ अंशत: , पहले से पकी हुई या पकाने में आसान होनी चाईए| जहाँ तक संभव हो भोजन तरल रूप में लिया जाए| उच्च तुंगता पर खाना पकाने में अधिक समय लगता है| अनुशंसा की गई सामग्री हैं: आटा,चावल,दाल,सोयाबीन बड़ी,नूडल्स , सूप पॅकेट, पहले से पकी हुई सूजी, उपमा पॅकेट, पहले से पकी हुई सब्जी एवम दाल के डिब्बे, सलाद , मसाले , दूध पाउडर /कॉंडेन्स मिल्क, चीनी, कॉर्न फ्लेक्स / ज़ई /दलिया, क़ॉफ़ी /बौर्नवीटा,सूजी या हलवा बनाने के लिए पहले से भुना हुआ रवा,घी,हवन व पूजा हेतु पूजा सामग्री|

कैमरा


जो एक कैमरा ले जाना चाहतें हैं वे ऐसा कर सकते हेँ|एक कागज़ पर यात्री का नाम और बॅच नंबर, कैमरा / वीडियो कैमरा के मेक और सीरियल नंबर ब्योरे के साथ टाइप होना चाईए और विदेश मंत्रालय के प्राधिकारियों को सोपा जाए| कैमरा को चीन के भीतर ले जाया जा सकता है या कोई विशेष अनुमति आवश्यक नहीं है| चुंकि उच्चतर तुंगताओं पर साव की गति तीव्रतर है, अत: अतिरिक्त बॅटरीया साथ ले जानी चाईए | धारचूला तक, सीमित अवधि के लिए , बॅटरी रीचार्ज करने के लिए पॉवर सुप्पलाई है, जो तकलाकोट पर भी उपलब्ध है| कैलाश मानसरोवर यात्रा के संचालन के दौरान भातिसी पोलिस की ज़िम्मेदारी 1:- तीर्थयात्रिओं का विस्त्तत चितिक्सा जाँच तीर्थयात्रा प्रारम्भ होने से पहले भातिसी पोलिस के बेस अस्पताल नई दिल्ली में किया जाता है | 2:- गुँजी से तीर्थयात्रिओं को सुरक्षा प्रदान करवाना | 3:- तीर्थयात्रिओं की उँचाई की दृष्‍टि को मध्यनज़र रखते हूए भातिसी पोलिस के चिकित्सा अधिकारिओ का एक दल गुँजी में चितिक्सा जाँच करता है| 4:- गुँजी से लिपुलेख पास एवम वापसी में लिपुलेख से गुँजी तक सुरक्षा , चिकित्सा एवम संचार की व्यवस्था उपलब्ध करवाना | 5:- इस तीर्थ यात्रा के साथ जुड़ी अगेन्सियों के साथ समन् 6:-प्राकृतिक एवम किसी भी आपदा की स्तिथि को निबटने के लिए हमेशा तैयार रहना | वय एवम मेल मिलाप करना|
  टोंक  जिले के बीसलपुर बांध के पास प्राकृतिक वातावरण मे मौजूद प्राचीन शिवलिंग
टोंक,। टोंक
मे बनास नदी के तट पर बीसलपुर बांध के पास मौजूद एक ऐसा मन्दिर है जों प्राकृतिक वातावरण और पौराणिक इतिहास का गवाह है, क्योंकि यहां पर भगवान शिव के सबसे बडे भक्त दशानन रावण ने हजारों साल भगवान शिव की तपस्या कर ऐश्वर्य का वरदान प्राप्त किया था, बीसलपुर बांध के त्रिवेणी संगम पर मौजूद यह मन्दिर ना सिर्फ लोगो को अपनी ओर आकृर्षित करता है बल्कि इसकी आस-पास का वातावरण किसी पर्यटन स्थल से कम नही है, यही कारण है कि यहां पर सालभर लोगो को आना-जाना रहता है।  हमारे धर्म प्रधान देश मे देवपूजा का इतिहास काफी प्राचीन है

, यू तों देश के कोने-कोने देवपूजा अलग-अलग स्वरूपो मे मौजूद, लेकिन जिन स्थानो मे पुरातन स्थान है, उनका सर्वाधिक एवं विशेष महत्व है, यू तों पूरे संसा में भगवान शिव के असंख्य ज्योर्तिलिंग परन्तु प्रमुख रूप से 12 ज्योर्तिलिंग है, इनके अलावा 108 उप ज्योर्तिलिंग है, जिसमे से गोकर्णेश्वर (महाबलेश्वर) का प्रमुख है, टोंक जिलें के बीसलपुर बांध के पास स्थित गोकर्णेष्वर महादेव का मन्दिर प्राचीन काल से बना हुआ है जहां की कहानी भगवान शिव के महान भक्तों माने जाने वाले दशानन रावण से जुडी है, यही पर रावण ने हजारो सालों तक कठिन अराधना की थी, तपस्या के बाद और आत्मलिंग के रूप में भगवान शिव का शिवलिंग प्राप्त कर जाने लगा तो देवताओं के छल के कारण उसे तीव्र लघुशंका हुई और उसने शिवलिंग धरती पर रख दिया जिससे शिवलिंग यहीं पर स्वयंभू हो गया, इसलिये स्वयंभू भी कहा जाता है क्योंकि बिना किसी द्वारा स्थापित किये बगैर यहा विराजित हो गए, जिसके बाद हर साल श्रावण मास मे रावण कांवड मे पवित्र नदियों का जल लेकर यहां भगवान शिव की अराधना करने आता था,

कहते है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन बनास नदी के तट पर स्थित गौकर्णेष्वर महादेव के पवित्र दह में हजारों लोग पवित्र स्नान कर सारे पाप से मुक्ति मिल पाते है, जबकि श्रावण मास मे यहां पर पूरे महिने काफी चहल-पहल रहती है। यहां पर मौजूद शिवलिंग को गौकर्णेश्वर कहने की कथा भी दिलचस्प है विद्वानों के अनुसार बीसलपुर बांध के स्थित गौकर्णेष्वर महादेव के मंदिर का पौराणिक महत्व है, जिससे के तहत महात्मा गौकर्ण के नाम पर भी इस स्थान का नाम गौकर्णेश्वर महादेव कहा जाता है, बताया जाता है कि महात्मा गौकर्ण ने अपने भ्राता धुन्धकारी को मोक्ष की प्राप्ति के लिए यहां एक सप्ताह की श्रीमद्भागवत का श्रवण करवाया था, इसलिये यह पवित्र स्थान मोक्षदायी भी माना जाता है, जहां लोग अपने पुर्वजों की अस्थियां भी यहां प्रवावित कर दान पुण्य करते, वही त्रिवेणी संगत होने के कारण यह स्थान पुजनीय है, क्योंकि पुराणों मे कहा गया है कि जहां तीन नदियों मिलती है वह स्वत: ही तीर्थ बन जाता है। विद्वानों मे माने तो बीसलपुर बांध मजबूती से खडे रहने मे भी गोकर्णेश्वर महादेव का आर्शिवाद है, जिस कारण है कारण से यहां आज भी मजबूती से खडा है। कहा जाता है सतयुग मे इसका रंग स्वेत था कलयुग मे लोगो बढते पाप के कारण धीरे-धीरे इनका रंग श्याम वरण होने लगा है। जहां पौराणिक स्थल होने के कारण गौकर्णेष्वर महादेव का मंदिर लोगों की आस्था का केंद्र है, वही बीसलपुर बांध होने के कारण यह एक पर्यटन का केन्द्र भी है जिस कारण प्रतिवर्ष देषी व विदेषी सैलानी भी घूमने के लिए आते है, कहते है कि रावण एक महान ज्ञानी था पर एक गलती ने उसका वंश सहित नाश कर दिया पर फिर भी लोग रावण का विद्वान के तौर पर सम्मान देते ही है, श्रद्धालूओं के अनुसार यहां पर भगवान शिव के दर्शन करने के साथ वह रावण की तपस्या स्थली को देखने भी आते है, यहां आने वाले आमजन ही नही कई जनप्रतिनिधि और संगठनों से जुडे लोग यहां पर भक्ति भाव से आते है और मनमानी मुराज पूरी करवाते है, वही पास ही मे रावण की कुलदेवी निकुम्भला माता का मन्दिर है, जिसके आस-पास सुन्दर वातावरण हैं। करीब दो दशक पूर्व गोकर्णेश्वर महादेव मन्दिर के सामने बीसलपुर बांध का निर्माण करवाया गया था, जिसके बाद से यहां पर पर्यटन के दृष्टिकोण से और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया, धार्मिक महत्व तो प्राचीन रहा है इस प्रसिद्ध स्थल की सबसे बडी विडम्बना यह है कि यहां आवागमन के साधनों की भारी किल्लत है और स्थल की सुविधाओं की बात की जाय तो यहां रात्रि में ठहरने के लिए किसी प्रकार व्यवस्था नहीं है, सफाई के दृष्टिकोण से भी यहां के प्रशासन का कोई ध्यान नहीं है जबकि बांध के पानी से राजस्थान की राजधानी जयपुर सहित अजमेर और आधा दर्जन से ज्यादा जिलों के हलक तर होते हैं, बीसलपुर क्षेत्र और गाकर्णेश्वर महादेव की आस-पास भोगोगिक वातावरण पर्यटन के हिसाब बिलकुल उपयुक्त है और मन्दिर के सामने मौजूद दह जहां पर श्रद्धालू स्थान कर पुण्य कमाते है वहां पर बोटिंग की व्यवस्था भी मौजूद है, प्रशासन भी लम्बे समय से इसको पर्यटन के मानचित्र लाने के दावे तो करता है लेकिन अभी तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो पाई है। गौकर्णेश्वर की प्रसिद्धी सुन यहां आने वाले यही शिकायत करते नजर आते है कि यहां सुविधाओं और सुरक्षा का अभाव है, जिसकों दुरूस्त किया जाना है चाहिये। पर्यटन के क्षेत्र में भले ही राजस्थान को दूसरा दर्जा मिला हो लेकिन राजस्थान में पर्यटन की भरपूर संभावनाओं से कतई इंकार नहीं किया जा सकता, गौकर्णेश्वर महादेव मन्दिर मे आने वाले श्रद्धालू भले ही बीसलपुर बांध और मन्दिर के आस-पास के क्षेत्र कों पर्यटन पर लाने की बात करते हुये पर राजनैतिक इच्छा शक्ति और प्रशासनिक उपेक्षा के शिकार होने के कारण अभी तक पर्यटन का दर्जा पाने से महरूम है। पूर्व सरकार द्वारा बीसलपुर वन क्षेत्र को कन्जर्वेशन रिजर्व भी घोषित किया गया था, जिसका कार्य भी शुरू होने से पूर्व ही खत्म हो गया और फिर से इसे पर्यटन पटल पर लाने की आवाज उठने लगी है।

गौरव चतुर्वेदी
देवली
बद्रीनाथ मंदिर , जिसे बद्रीनारायण मंदिर भी कहते हैं, अलकनंदा नदी के किनारे उत्तराखंड राज्य में स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप बद्रीनाथ को समर्पित है। यह हिन्दुओं के चार धाम में से एक धाम भी है। ऋषिकेष से यह २९४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । ये पंच-बद्री में से एक बद्री हैं। उत्तराखंड में पंच बद्री, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।


महत्व

बद्रीनाथ उत्तर दिशा में हिमालय की अधित्यका पर हिन्दुओं का मुख्य यात्राधाम माना जाता है। मन्दिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ है। प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बदरीनाथ का दर्शन एक बार अवश्य ही करे। यहाँ पर शीत के कारण अलकनन्दा में स्नान करना अत्यन्त ही कठिन है। अलकनन्दा के तो दर्शन ही किये जाते हैं। यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।

कोणार्क का सूर्य मंदिर (जिसे अंग्रेज़ी में ब्लैक पगोडा भी कहा गया है), भारत के उड़ीसा राज्य के पुरी जिले के पुरी नामक शहर में स्थित है। इसे लाल बलुआ पत्थर एवं काले ग्रेनाइट पत्थर से 1236– 1264 ई.पू. में गंग वंश के राजा नृसिंहदेव द्वारा बनवाया गया था। यह मंदिर, भारत की सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है। इसे युनेस्को द्वारा सन १९८४ में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है। कलिंग शैली में निर्मित यह मंदिर सूर्य देव(अर्क) के रथ के रूप में निर्मित है। इस को पत्थर पर उत्कृष्ट नक्काशी करके बहुत ही सुंदर बनाया गया है। संपूर्ण मंदिर स्थल को एक बारह जोड़ी चक्रों वाले, सात घोड़ों से खींचे जाते सूर्य देव के रथ के रूप में बनाया है। मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है। आज इसका काफी भाग ध्वस्त हो चुका है। इसका कारण वास्तु दोष एवं मुस्लिम आक्रमण रहे हैं। यहां सूर्य को बिरंचि-नारायण कहते थे।