अनोखी पहल...उत्तम विचार, नयी दिशा, सकारात्मक उर्जा
कार्यक्रम :- "माँ की महिमा" विशेष - 2
‘ज़मीं हो या आसमां... अधूरा बिन माँ
अनोखी पहल...उत्तम विचार, नयी दिशा, सकारात्मक उर्जा कार्यक्रम :- "माँ की महिमा" विशेष - 2  ‘ज़मीं हो या आसमां... अधूरा बिन माँ  एक बड़े ऋषि के आश्रम में ‘सेविका’ थी ‘जबाला’, जहाँ रात-दिन हर समय बड़े-बड़े मुनियों और संतों का आगमन होता रहता, जिनके सानिध्य में उसने बहुत सारा ज्ञान अर्जित कर लिया था... वैसे तो कहते हैं कि सत्संग का एक पल ही बहुत पुण्यदायी होता हैं और उनका तो सारा जीवन ऐसे पवित्र वातावरण में गुज़रा जहाँ हर समय प्रभु की महिमा का गुणगान, प्रवचन और हवन होता रहता... ऐसे शांत सुरम्य वातावरण में रहने से उसका हृदय भी एकदम पवित्र हो गया, जिसमें कोई द्वेष, कलुष या किसी भी अपावन विचार के लियें तक कहीं कोई स्थान नहीं था... उसका एक पुत्र था ‘सत्यकाम’ जिसे उन महान ऋषियों के अनमोल वचन, बहुमूल्य आशीर्वाद के साथ-साथ माँ की अमूल्य शिक्षा भी मिल रही थी, मगर वो पर्याप्त नहीं थी इसलियें जब उस पुत्र के विद्याध्यान का वक़्त आया तो उसने अपनी माता से कहा कि मैं विद्या प्राप्त करने के लियें ‘ऋषि गौतम’ के गुरुकुल में जाना चाहता हूँ... मुझे जाने की आज्ञा प्रदान करें और ये भी बतायें की यदि वहां गुरु मेरा गोत्र पूछे तो मैं उन्हें अपना ‘गोत्र’ क्या बताऊँ???  माँ थोड़ी देर असमंजस में पड़ी रही फिर कुछ सोचकर बोली कि—‘बेटा, पूरा समय इन ऋषि, मुनियों की सेवा में लगे होने की वजह से मैं कभी तेरे पिता से उनका गोत्र ही नहीं पूछ पाई, और फिर तुम्हारे बाल्यकाल में ही उनका निधन हो जाने से मुझे तो उसका पता नहीं, तुम अपने गुरु को यही सच बताकर अपनी शिक्षा आरंभ करना... हमेशा सत्य बोलना, कभी किसी भी परिस्थिति में अपने मुख से असत्य भाषण न करना’ ।  उसने माँ की इस सीख को अपने मन में अच्छी तरह बसा लिया और चल पड़ा अपने ‘गुरुकुल’ की और जहाँ उसके गुरु ने उसका परिचय लेते हुयें गोत्र के बारे में पूछा तो उसने निडरता और निष्कपट भाव से सब सच-सच बता दिया जो उसकी माँ ने उसे बताया था, जिसे सुनकर महर्षि गौतम बड़े प्रसन्न हुयें और उन्होंने उसके सत्य वचनों से प्रभावित होकर उसे नाम दिया---‘सत्यकाम जबाला’ ।  एक माँ ही अपनी संतान की प्रथम शिक्षिका और मार्गदर्शिका होती हैं... यदि वो बाल्यकाल से उसे सही ज्ञान देती हैं तो उस आधारशिला पर उसके जीवन का सुदृद भवन तैयार होता... हे माँ, हमें पग-पग पर राह दिखाने वाली रौशनी हैं तू... तुझे सादर नमन...  !!!
एक बड़े ऋषि के आश्रम में ‘सेविका’ थी ‘जबाला’, जहाँ रात-दिन हर समय बड़े-बड़े मुनियों और संतों का आगमन होता रहता, जिनके सानिध्य में उसने बहुत सारा ज्ञान अर्जित कर लिया था... वैसे तो कहते हैं कि सत्संग का एक पल ही बहुत पुण्यदायी होता हैं और उनका तो सारा जीवन ऐसे पवित्र वातावरण में गुज़रा जहाँ हर समय प्रभु की महिमा का गुणगान, प्रवचन और हवन होता रहता... ऐसे शांत सुरम्य वातावरण में रहने से उसका हृदय भी एकदम पवित्र हो गया, जिसमें कोई द्वेष, कलुष या किसी भी अपावन विचार के लियें तक कहीं कोई स्थान नहीं था... उसका एक पुत्र था ‘सत्यकाम’ जिसे उन महान ऋषियों के अनमोल वचन, बहुमूल्य आशीर्वाद के साथ-साथ माँ की अमूल्य शिक्षा भी मिल रही थी, मगर वो पर्याप्त नहीं थी इसलियें जब उस पुत्र के विद्याध्यान का वक़्त आया तो उसने अपनी माता से कहा कि मैं विद्या प्राप्त करने के लियें ‘ऋषि गौतम’ के गुरुकुल में जाना चाहता हूँ... मुझे जाने की आज्ञा प्रदान करें और ये भी बतायें की यदि वहां गुरु मेरा गोत्र पूछे तो मैं उन्हें अपना ‘गोत्र’ क्या बताऊँ???
माँ थोड़ी देर असमंजस में पड़ी रही फिर कुछ सोचकर बोली कि—‘बेटा, पूरा समय इन ऋषि, मुनियों की सेवा में लगे होने की वजह से मैं कभी तेरे पिता से उनका गोत्र ही नहीं पूछ पाई, और फिर तुम्हारे बाल्यकाल में ही उनका निधन हो जाने से मुझे तो उसका पता नहीं, तुम अपने गुरु को यही सच बताकर अपनी शिक्षा आरंभ करना... हमेशा सत्य बोलना, कभी किसी भी परिस्थिति में अपने मुख से असत्य भाषण न करना’ ।
उसने माँ की इस सीख को अपने मन में अच्छी तरह बसा लिया और चल पड़ा अपने ‘गुरुकुल’ की और जहाँ उसके गुरु ने उसका परिचय लेते हुयें गोत्र के बारे में पूछा तो उसने निडरता और निष्कपट भाव से सब सच-सच बता दिया जो उसकी माँ ने उसे बताया था, जिसे सुनकर महर्षि गौतम बड़े प्रसन्न हुयें और उन्होंने उसके सत्य वचनों से प्रभावित होकर उसे नाम दिया---‘सत्यकाम जबाला’ ।
एक माँ ही अपनी संतान की प्रथम शिक्षिका और मार्गदर्शिका होती हैं... यदि वो बाल्यकाल से उसे सही ज्ञान देती हैं तो उस आधारशिला पर उसके जीवन का सुदृद भवन तैयार होता... हे माँ, हमें पग-पग पर राह दिखाने वाली रौशनी हैं तू... तुझे सादर नमन... !!!

Devendra Shrotriya

AKHIL VISHWA KHANDAL BANDHU EKTA
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