त्रिलोक्य  विजयस्थ  कवचस्य  शिव ऋषि ,
अनुष्टुप  छन्दः, आद्य काली देवता, माया बीजं,
रमा  कीलकम , काम्य सिद्धि विनियोगः || १ ||

ह्रीं आद्य मे शिरः पातु श्रीं  काली वदन  ममं,
हृदयं क्रीं परा शक्तिः पायात  कंठं  परात्परा ||२||

नेत्रौ पातु जगद्धात्री करनौ रक्षतु शंकरी,
घ्रान्नम पातु महा माया  रसानां  सर्व मंगला ||३||

दन्तान रक्षतु कौमारी  कपोलो कमलालया,
औष्ठांधारौं  शामा रक्षेत चिबुकं चारु हासिनि ||४|

ग्रीवां पायात  क्लेशानी  ककुत पातु कृपा मयी,
द्वौ बाहूबाहुदा  रक्षेत  करौ  कैवल्य दायिनी ||५||

स्कन्धौ  कपर्दिनी पातु पृष्ठं  त्रिलोक्य तारिनी,
पार्श्वे पायादपर्न्ना मे कोटिम मे कम्त्थासना ||६||

नभौ  पातु विशालाक्षी प्रजा स्थानं प्रभावती,
उरू रक्षतु कल्यांनी  पादौ मे  पातु  पार्वती ||७||

जयदुर्गे-वतु  प्राणान  सर्वागम सर्व  सिद्धिना,
 रक्षा हीनां  तू यत  स्थानं  वर्जितं  कवचेन  च ||८||

इति ते कथितं दिव्य  त्रिलोक्य  विजयाभिधम,
कवचम कालिका देव्या आद्यायाह परमादभुतम ||९||

पूजा काले पठेद  यस्तु आद्याधिकृत मानसः,
सर्वान कामानवाप्नोती  तस्याद्या सुप्रसीदती ||१०||

मंत्र सिद्धिर्वा-वेदाषु  किकराह शुद्रसिद्धयः,
अपुत्रो लभते पुत्र धनार्थी प्राप्नुयाद धनं ||११|

विद्यार्थी लभते विद्याम कामो कामान्वाप्नुयात
सह्स्त्रावृति पाठेन वर्मन्नोस्य पुरस्क्रिया ||१२||

पुरुश्चरन्न  सम्पन्नम यथोक्त फलदं  भवेत्,
चंदनागरू  कस्तूरी कुम्कुमै  रक्त चंदनै ||१३||

भूर्जे विलिख्य गुटिका स्वर्नस्याम धार्येद यदि,
शिखायां दक्षिणे  बाह़ो कंठे वा साधकः कटी ||१४||

तस्याद्या  कालिका वश्या वांछितार्थ प्रयछती,
न कुत्रापि भायं तस्य सर्वत्र विजयी कविः ||१५||

अरोगी  चिर  जीवी  स्यात  बलवान  धारण शाम,
सर्वविद्यासु निपुण सर्व  शास्त्रार्थ  तत्त्व  वित्  ||१६||

वशे तस्य  माहि पाला भोग मोक्षै   कर  स्थितो,
 कलि  कल्मष युक्तानां निःश्रेयस   कर  परम ||१७||
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