बीकानेर ।  राजस्थान प्रांतीय शाकद्वीपीय ब्राह्मण महासभा, बीकानेर ने महाकवि वृंद को उनकी 371वीं  जयन्ती पर श्री संगीत भारती में एक कार्यक्रम आयोजित कर उनका स्मरण किया गया ।  कार्यक्रम की  अध्यक्षता प्रसिद्ध संगीतज्ञ डा. मुरारी शर्मा ने की तथा मुख्य अतिथी के रूप में महाकवि वृंद की 9वीं पीढी के  शिक्षाविद् चैतन्यदेव शर्मा थे ।  मुख्यअतिथी चैतन्यदेव ने वृंद के काव्यकृति की रचना करते हुए बताया कि  महाकवि ने संस्कृत, बृज, राजस्थानी और हिन्दी भाषा में अपनी रचनाएं की ।  वंृद की रचनाओं में जहां एक  ओर श्रृंगार एवं वीररस का बाहुल्य रहा है वहीं वृंद ने लोकोक्तियों का उपयोग अपनी रचनाओं में नीति के दोहों  में बखूबी किया ।  महासभा के महासचिव आर के शर्मा ने पंडित नथमल पाण्डे द्वारा शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के  इतिहास में उल्लेखित वृद के वृतांत पर प्रकाश डालते हुए डींगल एवं पींगल में उनके योगदान पर  विश्लेषणात्मक व्याख्यान प्रस्तुत किया ।  उन्होने कहा कि 'होनहार विरवान के, होते चिकने पातÓ 'अन मांगे  मोती मिले, मांगे मिले ना भीखÓ 'तेते पांव पसारिये जेती लम्बी सोरÓ 'करत करत अभ्यास के, जड़मति होत  सुजानÓ की उक्तियों को जनमानस ने लोकोक्तियों के रूप में ग्रहण कर लिया है ।  अध्यक्षीय सोच में डा.  मुरारी शर्मा ने वृंद साहित्य में सांगीतिक चर्चा करते हुए वंृद के दोहों के गेय पक्ष पर अपना मंतव्य दिया ।  डा.  शर्मा ने बताया कि मेड़तासिटी में वंृद का जन्म हुआ लेकिन वे दिल्ली और बीकानेर में सर्वाधिक रहे, अत: वंृद  की प्रासंगिता को बीकानेर एवं महाराजा अनूपसिंह जी के काल में दिये गये कला साहित्य वं संगीत के अवदान  को भुलाया नहीं जा सकता ।  वृंद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालने में श्रीलाल सेवग, कन्हैया  महाराज, प्रहलाददास सेवग, गिरिधर शर्मा, अप्रवासी राजस्थानी इंजीनियर सुशील शर्मा, चितरंजन कुमार शर्मा,  पूनमचंद की सहभागिता रही ।  नितिन वत्सस ने कार्यक्रम का संयोजन किया जबकि महासभा की बीकानेर  शहर इकाई के अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा ने आभार व्यक्त किया ।  इस अवसर पर वृंदवंशज चैतन्यदेव शर्मा  का अभिनन्दन भी किया गया ।  उल्लेखनीय है कि बीकानेर निवासी महाकवि क पिताजी रूप जी 16वीं  शताब्दी के अंत में मेड़ता जाकर बस गये थे वहीं संवत् 1700 में इनका जन्म हुआ औंर ठीक 80 वर्ष की आयु  में संवत् 1780 की भादवे की अमावस्या को इनका स्वर्गवास हो गया ।  महाकवि वृंद ने संवत् 143 में भाव  पंचाशिका, 1748 में श्रृंगार शिक्षा, यमक सतसई, पवन पच्चीसी, हितापदेशाष्टक गं्रथ, 1761 में वंृद सतसई,  1762 में वचनिका और 1768 में सत्य स्वरूप नामक ग्रंथ की रचना की ।

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