एस्ट्रो धर्म।
स्त्री का मातृत्व ही उसकी महत्ता का द्योतक है। अत: गर्भधारण संस्कार अत्यधिक गौरवशाली संस्कार माना गया है।
गर्भ: सन्धार्यते येन कर्मणा तत् गर्भाधानम्।
गृहस्थ जीवन की सार्थकता संतानोत्पत्ति में ही मानी गई है, क्योंकि इसी से तो सृष्टि का विकास होता है। अत: गर्भाधान संस्कार में सात्त्विकता एवं तामसिकता का ध्यान रखना चाहिए। माता-पिता की प्रवृत्ति का प्रभाव ही उनकी भावी पीढ़ी पर पड़ेगा।
2. पुंसवन संस्कार
गर्भस्थ शिशु पर माता-पिता, परिवार एवं वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है। महाभारत का अभिमन्यु तो गर्भावस्था में ही अपने पिता अर्जुन द्वारा बताए चक्रव्यूह-भेदन की क्रिया को सीख गया था। अत: गर्भस्थ शिशु के कल्याण के लिए गर्भवती मां को पौष्टिक व सात्त्विक आहार के साथ सुसंस्कारक साहित्य, शास्त्रोक्त सदुपदेश, चरित्र, आचरण के निखार विषयक कथाएं सुनानी चाहिए। यह संस्कार गर्भाधान के तीसरे या चौथे महीने में किया जाता है—
गर्भे तृतीये तु मासि पुंसवनं भवेत्।
3. सीमंतोन्नयन संस्कार
गर्भस्थ शिशु को किसी प्रकार की क्षति न हो। बाह्य आपदाएं, पैशाचिक प्रकोप अथवा इसी प्रकार की अन्य आकस्मिक शिशु घातक घटनाओं से बचाने के प्रयास के क्रम में इस संस्कार की महत्ता है। प्राय: असामयिक गर्भपात की घटनाएं सुनने में आती हैं। वैसे भी गर्भावस्था में स्त्रियां कहीं दूर आना-जाना पसंद नहीं करतीं, जबकि भूत-प्रेत बाधा का डर भी रहता है। अत: गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता इस संस्कार में दिए जाने का संकेत लक्षित होता है। गर्भस्थ शिशु की दीर्घायु एवं सुरक्षा के विषय में तो बताया गया है—
सीमन्तोन्नयनं कार्य तत्स्त्री संस्कार इष्यते।
यह संस्कार छठे या आठवें महीने में किए जाने का प्रावधान है, क्योंकि तब तक शिशु उदर में चलने लगता है। इस संस्कार मे गर्भवती स्त्री के केश संवारने के भाव से यही प्रतीत होता है कि उसकी देख-रेख बड़ी सावधानी से की जानी चाहिए। अधिक श्रम, रात्रि-जागरण, दिवा-शयन आदि न करें।
4. जातकर्म संस्कार
नवजात शिशु के मुख में घी-मधु का स्पर्श कराते हैं। इसी के साथ यह मंत्र-वाचन भी किया जाता है—
मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम्।
शिशु के कान में भी दीर्घायु-यशस्वी होने के लिए मंत्र पढ़े जाते हैं। नवजात शिशु के नाल-छेदन (नाल काटने की) क्रिया की जाती है, जच्च-बच्चा की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता है।
5. नामकरण संस्कार
शिशु के नामकरण संस्कार के विषय में शास्त्रोक्त कथन है-
एकादशे अहनि पिता नाम कुर्यादिति।
जन्म के ग्यारहवें दिन नवजात शिशु का नामकरण होना चाहिए। नामकरण संस्कार की महत्ता भी शास्त्रों में बताई गई है। नाम का मनुष्य के काम पर तथा व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है, अत: शिशु के शुभाशुभ के परिप्रेक्ष्य में नामकरण संस्कार किया जाना चाहिए। ‘शतपथब्राह्मण’ में भी बताया गया है—
तस्मात्पुत्रस्य जातस्य नाम कुर्यात्।
6. निष्क्रमण संस्कार
नवजात शिशु को अच्छे मुहूर्त में अनुष्ठानों के साथ घर से प्रथम बार निकालने को ‘निष्क्रमण संस्कार’ कहते हैं। निष्क्रमण संस्कार प्राय: गांवों में संपन्न किए जाने पर गाय के गोबर से आंगन को लीपकर, चौक पूरकर, विविध अनुष्ठानों के साथ नवजात शिशु को प्रसूतिका-गृह से बाहर लाकर चौक में रखे अनाज का स्पर्श कराया जाता है तथा सूर्य और चंद्रमा के दर्शन शुभ तिथियों पर कराए जाते हैं।
7. अन्नप्राशन संस्कार
शिशु के मुख में सर्वप्रथम अन्न का स्पर्श कराने को ‘अन्नप्राशन संस्कार’ कहा जाता है। यह प्राय: छह महीने के पश्चात् किया जाता है, क्योंकि तब तक बच्चा बड़ा हो जाता है और उसकी तृप्ति मां के दूध से नहीं हो पाती। ‘चरक संहिता’ में भी छह महीने पश्चात् बच्चों को पथ्य भोजन दिए जाने को श्रेयस्कर बताया गया है। इस अवधि में बच्चों को दांत भी आने लगते हैं तथा पाचनक्रिया भी प्रभावित होती है।
8. चूड़ाकर्म/मुंडन संस्कार
बच्चों के प्रथम वर्ष के अंत में अथवा तृतीय वर्ष के अंत में मुंडन संस्कार कराया जाता है, जिसमें विविध अनुष्ठानों के साथ बच्चों के सिर के बाल उतारे जाते हैं। प्राय: यह संस्कार किसी देवस्थान पर कराने की परंपरा है।
9. कर्णवेध संस्कार
इस संस्कार में कानों को छेदने की प्रथा है। कर्ण-छेदन का संस्कार प्राय: छठे, सातवें, आठवें या ग्यारहवें वर्ष में संपन्न कराया जाता है। लड़के के दाहिने कान को छेदने तथा लड़कियों के दोनों कानों को छेदने की प्रथा प्रचलित है।
10. विद्यारंभ संस्कार
बच्चे का विद्याध्ययन के लिए प्रारंभ किए जाने वाले इस संस्कार को ‘अक्षरारंभ संस्कार’ भी कहते हैं। अच्छे मुहूर्त के साथ इस संस्कार का शुभारंभ विधि-विधान के साथ कराया जाता है, जिससे बच्चा पढ़-लिखकर यशस्वी बने। यह बच्चे के भविष्य के लिए यह अत्यधिक महत्वपूर्ण संस्कार है।
11. उपनयन संस्कार
इस संस्कार को यज्ञोपवीत अथवा ‘जनेऊ संस्कार’ भी कहते हैं। अथर्ववेद में इसे ‘ब्रह्मचारी’ शब्द से समलंकृत किया गया है, जबकि सामान्य अर्थ में इसे प्राचीन काल के ‘दीक्षादान’ से जाना जाता है। आज भी लोग यज्ञोपवीत संस्कार हर्षोल्लास के साथ संपन्न कराते हैं।
12. वेदारंभ संस्कार
प्राचीन काल में उपनयन संस्कार के साथ ही वेदारंभ अर्थात् वेदों के अध्ययन का संस्कार कराया जाता था, किंतु परवर्ती काल में जब संस्कृत बोलचाल की भाषा नहीं रही तो इसका प्रचलन बहुत कम हो गया। आंशिक रूप से कहीं-कहीं यह संस्कार आज भी संपन्न कराया जाता है।
13. केशांत अथवा गोदान संस्कार
प्राचीन काल में इसके अंतर्गत ब्रह्मचारी (वेदाभ्यासी) के श्मश्रुओं का क्षौर किया जाता था तथा गोदान कराया जाता था।
14. समावर्तन संस्कार
प्राचीन काल में वेदाध्ययन के पश्चात् गुरुकुल से अपने घर प्रत्यावर्तन (लौटने) को ‘समावर्तन संस्कार’ कहा जाता था। इसे ‘दीक्षांत संस्कार’ भी कहा जाता था। आज दीक्षांत समारोह उसी परंपरा का रूप कहा जा सकता है।
15. विवाह संस्कार
इस संस्कार का अत्यधिक महत्व है। आज भी प्रत्येक परिवार में वैवाहिक कार्यक्रम अत्यधिक हर्षोल्लास एवं अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार संपन्न कराया जाता है। वैदिक वा्मय में भी विवाह संस्कार की महत्ता सर्वाविदित है।
16. अंत्येष्टि संस्कार
मृत्यु के बाद यह संस्कार अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार संपन्न कराया जाता है। ऐहिक जीवन का अंतिम संस्कार परलोकवास की प्रार्थना के साथ किया जाता है। लोक-परलोक दोनों सुधारने का सतत प्रयास मनुष्य करता है और मोक्ष-प्राप्ति उसका अंतिम उद्देश्य होता है। इस परिप्रेक्ष्य में भी संस्कार की अत्यधिक महत्ता है। जीवन की सार्थकता के लिए संस्कारों से स्वयं को, अपनी संतानों को एवं समाज को संवारना आवश्यक है
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