श्रद्धा और ज्ञान के तमाम आयाम आरंभ से ही बहस का विषय रहे हैं और इनके औचित्य तथा श्रेष्ठताओं पर हर युग में शास्त्रार्थ, बहस और चर्चाएँ होती रही हैं।

दोनों ही गूढ़ विषय हैं और कई सारे अर्थ पाने और अपने-अपने हिसाब से व्याख्या करने की अपार संभावनाओं से भरे हैं। ज्ञानीजन ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं जबकि आम भक्तजन श्रद्धा को सर्वोपरि मानते हैं।

यह द्वन्द्व श्रद्धावानों से अधिक ज्ञानियों में होता है क्योंकि श्रद्धावान लोग जितने सहज, सरल और समझने लायक होते हैं उतने ही ज्ञानीजन अधिक टेढ़े-मेढ़े, असहज और कठिन होते हैं।

दूसरे तमाम विषयों को छोड़ कर अकेले भक्ति मार्ग की ही बात करें तो ज्ञान और श्रद्धा के बीच द्वन्द्वात्मक स्थितियां और इनकी स्वीकार्यता के मामले में मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना वाले हालात होते हैं।

श्रद्धावान व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त कर सकता है किन्तु यह जरूरी नहीं है कि ज्ञानवान इंसान श्रद्धावान हो ही जाए। यह स्थिति गोपियों और उद्धव के संवाद से काफी कुछ मिलती-जुलती है।

दोनों ही अपने-अपने मार्ग को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। ज्ञानमार्गियों का मानना है कि ज्ञान के सहारे ही सब कुछ पाया जा सकता है और यही मार्ग सभी को अपनाना चाहिए।

दूसरी ओर भक्ति के विभिन्न रास्तों पर चलने वाले लोगों का मानना है कि भक्ति और श्रद्धा का समन्वय ही सर्वोपरि है।  इन सारे झंझावातों के बीच बात आती है कि सहज और सरल मार्ग की। और वह है कि श्रद्धा से युक्त भक्ति का मार्ग।

ज्ञान के रास्ते पर कई सारे मतभेद-मनभेद और कृत्रिम भेद विद्यमान हैं जिनमें तर्क-कुतर्क और बहसों की अविराम श्रृंखला निरन्तर गतिमान रहती हुई अक्सर बिना किसी निष्कर्ष के रह जाती है। इसके बाद न कोई फल सामने आता है न फल या सुगंध।

बल्कि अधिकतर मामलों में  विद्वेष और अलगाव की भावना ही देखने को मिलती है।  ज्ञानी होना जीवन की सफलता का प्रतीक नहीं है बल्कि ज्ञानी होकर भी अहंकार मुक्त, निष्कपट और सरल होना जरूरी है और जो ज्ञानी लोग निष्प्रपंची, निरंहकारी  और अनासक्त रहकर सहज, सरल एवं सादगी पूर्ण जीवन यापन कर पाते हैं, वे ही वास्तविक ज्ञानी हैं।

ज्ञानी हो जाने के बाद आपराधिक, षड़यंत्रकारी और संवेदनहीन हो जाने वाले लोग अज्ञानी ही रहा करते हैं क्योंकि ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी अविद्या का अंधकार छाया रहे, विद्या पाने के बाद भी विनयी स्वभाव न दिखे, उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं है।

ज्ञानी आस्तिक भी हो सकता है और नास्तिक भी। लेकिन अधिकतर ज्ञानी अहंकारी, षड़यंत्रकारी, स्वार्थी, खुदगर्ज और अमानवीय होने लगते हैं और यही कारण है कि ज्ञानियों का हृदय कपट से भरा होने लगता है और दिमाग खुराफात से।

सच्चा ज्ञानी वही है जो सदाचार, सिद्धान्त और संस्कार धाराओं का परिपालन करने वाला हो, जगत के प्रति प्रेम, सद्भाव और सौहार्द रखने वाला, उदारवादी और मानवीय संवेदनाओं से भरा-पूरा हो, वैष्णव जन की तरह परायों की पीड़ा को जानने और हरने वाला, मदद करने वाला हो, सम्बल देने वाला हो तथा जिसके कारण सभी को प्रसन्नता का भाव हो।

पर आजकल बहुत सारे ज्ञानियों और विद्वानों को हम देखते हैं जिनका उद्देश्य केवल अपने ही अपने लिए जीना होकर रह गया है, उन्हें दूसरों की कोई परवाह नहीं है।

बहुत से लोग अपनी विद्वत्ता और ज्ञान का उपयोग ऎसे-ऎसे लोगों के लिए प्रशस्तिगान करना हो गया है जिनके लक्षणों को जानकर कोई भी इन्हें पूर्ण मनुष्य मानने तक से हिचकता है, इनकी हरकतों को देखकर इनसे घृणा करता है लेकिन बुद्धिजीवियों और ज्ञानियों की एक पूरी की पूरी जमात ही ऎसी होती जा रही है जिसे समाज, क्षेत्र या देश से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि अपनी चवन्नियां चलाने,  राज्याश्रय प्राप्त कर पराये अभयारण्यों में दुबकते हुए सारे आनंद पाना, नाकाबिलों की गोद में बैठकर औरों पर तीर चलाना, अपनी विद्वत्ता का दुरुपयोग महिमा मण्डन में करना ही रह गया है।

ज्ञान पवित्र होता है लेकिन देखा यह गया है कि आधे-अधूरे ज्ञान से स्वयं को विद्वान और ज्ञानी मान लेने वाले लोग हमेशा जिस तरह का आचरण करते हैं उनमें पवित्रता का अभाव रहता है। जो सच्चे ज्ञानी और विद्वान हैं, जिन्हें ज्ञान की पूर्णता का अहसास है वे लोग शुचिता के साथ जीवन जीते हैं और उनका सान्निध्य भी आलोक प्रदान करने वाला रहता है लेकिन आजकल समस्या उन लोगों की अधिक है जो कि मामूली ज्ञान पाकर खुद को पूर्ण मान बैठे हैं और यही कारण है कि ये लोग शुचिताहीन लोगों के साथ रहने और सांसारिक प्रतिष्ठा पाने को ही जिन्दगी समझ बैठे हैं और अपने असली उद्देश्यों से पूरी तरह भटक गए हैं।

इन लोगों में श्रद्धा का पूर्णतया अभाव होता है लेकिन कारोबारी मानसिकता, लाभ-हानि के तमाम समीकरणों, जायज-नाजायज संतुलन बिठाने के तमाम गुर आदि में सिद्धहस्त होते हैं।

इन लोगों की जिन्दगी का सबसे बड़ा गणित यही होता है कि इस चरम स्तर की विद्वत्ता या ज्ञान प्राप्त किया जाए जिसमेंं औरों से काम निकलवाने, दूसरों का भरपूर उपयोग कर डालने और शोषण की पराकाष्ठाओं को पार कर डालते हुए भी अपने स्वार्थों की पूर्ति जारी रहनी चाहिए।

दूसरी ओर निष्ठा, लगन और समर्पण के साथ श्रद्धापूर्वक कर्म का कोई मुकाबला नहीं है।  श्रद्धा चाहे ईश्वर पर हो, अपने कर्म पर या किसी पर भी।

यह जब परिपूर्णता के स्तर पर होती है तब ज्ञान को भी पछाड़ देने का सामथ्र्य रखती है। इसलिए श्रद्धावान रहें। इससे ज्ञान भी प्राप्त होता है और श्रद्धा से प्राप्त होने वाली मनः सौन्दर्य की धाराएँ। यह अगाध श्रद्धा और असीम आस्था ही आनंद और ईश्वर दोनों की प्राप्ति होती है।
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